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सूफ़ीवाद (तसव्वुफ़)

यहाँ माहिरिन-ए-लिसानियत के दरमियान "तसव्वुफ" की इस्तिलाह के माख़ुज़ के बारे में मुख्तलिफ नज़रियात मौजूद हैं। माना जाता है कि इस्तिलाह तसव्वुफ मुख्तलिफ अल्फाज़, यानी अल-सुफ्फह, शाफ़ी, शफ़, शुफ, और सोफ़ोस से निकली है। अल-सुफ्फह "अहल अल-सुफ्फह" के मुहावरे से माखुज़ है जो मस्जिद-ए-नबवी के सेहन के मकीनों को ज़ाहिर करता है। शाफ़ी उन अफराद के गिरोह की तरफ इशारा करता है जो ततहीर के अमल से गुज़रे हैं। शफ़ इबादत के दौरान बनने वाली सफ़ को ज़ाहिर करता है। शुफ एक कपड़े से बने हुए कपड़े को ज़ाहिर करता है जो सूफ़ी इस्तेमाल करते हैं। दूसरी तरफ, इस्तिलाह सोफ़ोस यूनानी ज़बान से निकली है और हिकमत को ज़ाहिर करती है।

इस के अलावा, हमका तसव्वुफ की वज़ाहत में मज़ीद इस्तिलाहात पेश करते हैं। एक इस्तिलाह "शफ़ा" है, जो शफ़्फ़ाफ़ शीशे की तरह पाकीज़गी का मतलब बयान करती है। एक और इस्तिलाह "शुफ्फाना" है, जो अरब के सहरा में उगने वाले एक किस्म के दरख़्त को ज़ाहिर करती है। इस के बरअक्स, कुछ माहिरिन-ए-लिसानियत का मानना है कि इस्तिलाह तसव्वुफ अरबी असल की नहीं है बल्कि कदीम यूनानी ज़बान से अरबी में तब्दील हुई है। यह माना जाता है कि यह इस्तिलाह यूनानी लफ़्ज़ "थियोसोफी" से निकली है, जिसका मतलब इल्म-ए-इलाहियात है, जो बाद में अरबी में तसव्वुफ बन गया।

अमीन सकोर मुख्तलिफ नज़रियात के बुनियाद और दलाईल फराहम करते हैं जो सूफ़ी अज़्म की असल के बारे में हैं। एक नज़रिया यह है कि सूफ़ी अज़्म लफ़्ज़ "शुफ" (ऊन) से निकला है, जो दर्ज ज़ैल रिवायतों पर मुबंनी है:

अनस ने रिवायत की कि नबी (स.अ.व) ने एक ग़ुलाम की दावत क़बूल की, जहां उन्होंने गधे पर सवार होकर ऊन का लिबास पहना। यह रिवायत सूफ़ी अज़्म के साथ ऊन के लिबास की शिनाख़्त को ज़ाहिर करती है। यह अमल बरादरी के अंदर सादिक़ी और इस्तिहकाम के खिलाफ समाजी एहतिजाज को ज़ाहिर करता है। (माख़ुज़: अल-शह्रुवर्दी, 1358)

हसन बसरी ने बयान किया कि उन्होंने सत्तर बद्री फौजियों को देखा जो ऊन के लिबास में थे। यह बयान इस नज़रियात को मज़ीद ताक़त देता है कि सूफ़ी अज़्म का अलामती लिबास ऊन है। (माख़ुज़: अल-शह्रुवर्दी, 1358)

यह अहादीस, जो मऊक़ूफ़ और मक़्तू कहलाती हैं, इस यक़ीन की बुनियाद बनाती हैं कि इस्तिलाह "तसव्वुफ" लफ़्ज़ "शुफ" (ऊन) से निकला है। सूफ़ियों के लिए ऊन के इस्तेमाल का मतलब उनकी सादगी और मादी इज़ाफ़े के खिलाफ मौक़ूफ़ को ज़ाहिर करता है। मज़ीद-बर-आँ, असल इस्तिलाहात "शफ़ा" (पाक) और "शाफ़" सूफ़ी अज़्म में शामिल इमानदारी और अखलाक़ी सच्चाई को ज़ाहिर करती हैं, जो सूफ़ियों को अल्लाह तआला के सामने पहली सफ़ (शाफ़) में खड़ा करती हैं। यह जस्तजू उनके आला मक़ासिद और अल्लाह के साथ ग़ैर मुतज़लज़ल वाबस्तगी को ज़ाहिर करती है, जो इंतिहाई इख़लास के साथ अदा की जाती है। (माख़ुज़: अल-शह्रुवर्दी, 1358)

तसव्वुफ की इस्तिलाह, जो सुफ्फह से निकली है, मऊक़ूफ़ हदीस में बयान हुई है जिसे अबू हुरैरा ने रिवायत किया है, जो कहती है:

"मैंने यक़ीनन सुफ्फह माहिरिन को देखा है जो तंग लिबास में नमाज़ पढ़ते थे जो उनके घुटनों तक नहीं पहुंचता था। जब वो सजदा करते तो उनमें से कुछ अपने कपड़ों को ऊंचा करते ताकि अपने निजी हिस्से को ज़ाहिर न करें।" (माख़ुज़: अल-शह्रुवर्दी, 1358)

यह रिवायत इस बात की तस्दीक करती है कि इस्तिलाह तसव्वुफ लफ़्ज़ सुफ्फह से निकली है। सूफ़ियों के आमाल उन सुफ्फह माहिरिन के मुशाबेह हैं जो अपनी सादगी और अल्लाह के क़रीब रहने के लिए मआरूफ़ थे। एक और इस्तिलाह जो तसव्वुफ से वाबस्ता है वह शुफाना है, क्योंकि बहुत से सूफ़ी रोज़े रखने और तवील इबादत में मशगूल रहने की वजह से कमज़ोर जिस्म रखते हैं, जो उन्हें दरख्तों के मुशाबेह बनाता है।

तसव्वुफ के मानी मंफी असरात और मादी दुनिया की नजासतों से खुद को पाक करने के तसव्वुर को ज़ाहिर करते हैं, जो अल्लाह के क़रीब और उसकी ख़ुश्नूदी के हुसूल की जस्तजू में किया जाता है। वक्त के साथ और मुख्तलिफ मकामात पर, तसव्वुफ ने अपने मानी में उतार चढ़ाव और तब्दीलियां देखी हैं। नतीजतन, इस इस्तिलाह की मुख्तलिफ तशरीहात और फ़हम मौजूद हैं, हालाँकि इसकी असल में बहुत सी यक्सानियत हैं।

इस्तिलाहन, तसव्वुफ मुख्तलिफ ताबीरात का हामिल है। मानी में तनव्वो'सूफ़ियों के अल्लाह के साथ तआलुक के अंदरूनी तजुरबात से पैदा होता है, जहां मौज़ूई नुक्त ज्यादा एहमियत रखते हैं बजाय मा'रूज़ी ता'रीफ़ात के। जैसे कि मोहब्बत का तजुरबा करने वाले अफराद, जब मोहब्बत की ताबीर करने के लिए कहा जाता है, तो लोग अपने मुनफरिद अंदरूनी तजुरबात  की बुनियाद पर मुख्तलिफ जवाबात फराहम करते हैं।

हमका ने इब्न अराबी के तसव्वुफ़ की तफ़हीम की वज़ाहत की, जो एक हालत से दूसरी हालत में तब्दीली, ख़ास तौर पर मादी दुनिया से रूहानी दुनिया की तरफ़ तब्दीली को ज़ाहिर करती है। मजीद बराँ, हमका ने इब्न तैमिया के नुक्ता ए नज़र का हवाला दिया, जो तसव्वुफ़ को ख़ुदा के आशिक़ बनने के नज़्म ओ ज़ब्त के तौर पर पेश करता है जो ख़ुदा की मुहब्बत में भी मुब्तला होता है। इसका मतलब है अल्लाह के अहकाम की इताअत, उसकी मुमानिअतों से इजतिनाब, और उसके साथ दिल की पूरी सच्चाई के साथ वाबस्तगी।

इब्न ख़लदून ने तसव्वुफ़ को एक मज़हबी इल्म की शाख़ के तौर पर दर्जा बंद किया है जो बाद में उभरी, बुनियादी तौर पर इबादत और दुनियावी वाबस्तगियों से अलग होने पर तवज्जोह मरकूज़ की। यह दुनियावी मादियात, दुनियावी आराइशों और दौलत की धोखाधड़ी को मुस्तरद करते हुए, मुकम्मल तौर पर अल्लाह की तरफ़ मुतवज्जेह करने पर ज़ोर देता है। इसके पैरोक़ार अल्लाह की मर्ज़ी के मुताबिक़ इबादत की एक तनहा और मुख़्तस राह इख़्तियार करते हैं।

इइसके बरअक्स, जुनैद अलबग़दादी ने तसव्वुफ़ को मन्फ़ी किरदार की सिफ़ात और नापसंदीदा मिज़ाज से दूर होने के तौर पर बयान किया, जिसमें आला ख़ूबियों को परवान चढ़ाने की ज़रूरत को तस्लीम किया गया है। अमीन अब्दुल्लाह ने तसव्वुफ़ को एक मक्नातीस से तशबीह दी, जिसमें कोई ज़ाहिर ताक़त न होने के बावजूद अंदरूनी सलाहियत मौजूद है। इस सलाहियत को तामीरी ज़ाती और मुआशरती तरक़्क़ी की जानिब ले जाया जा सकता है।

मजमूई तौर पर, तसव्वुफ़ के बारे में ये मुख़्तलिफ़ नज़रियात इसकी पेचीदा नौइयत को ज़ाहिर करते हैं, जो ज़ाती तबदीली, अल्लाह से वाबस्तगी, दुनियावी मदाखलतों से अलग होना, नेक ख़ुसूसियात का फरोग़, और तामीरी मक़ासिद के लिए अंदरूनी सलाहियत की बहबूदी को शामिल करते हैं।

अमीन सकोर के मुताबिक, तसव्वुफ़ मन्फ़ी सिफ़ात से दूरी और नेक ख़ुसूसियात की तरफ बढ़ने का अमल है, जो रियाज़त (मज़बूत तर्बीयत) और मुजाहिदा (जोश ओ ख़रोश से कोशिश) के ज़रिए होता है। अलकनानी तसव्वुफ़ को फ़ितरी अख़लाक़ियात का हामिल समझते हैं, जहां अख़लाक़ी सलूक में इज़ाफ़ा पाकीज़गी में इज़ाफ़े का बाइस बनता है। अबू मोहम्मद अल्ज़रीरी तसव्वुफ़ को दिल की परवरिश और ख़्वाहिशात और जज़बात को काबू में रखने पर मरकूज़ एक काबिल-ए-सताइश अमल के तौर पर बयान करते हैं।

हुसैन अबू अन नूरी, जिन्हें सूखी हूदा ने नकल किया, तसव्वुफ़ को आज़ादी, इज़्ज़त, और इस्लामी क़ानून के अहकाम की पाबंदी करते हुए फ़लाही कामों और सख़ावत में मशग़ूल रहने के दौरान अदम ग़लबे की हालत के तौर पर बयान करते हैं। दूसरे अल्फ़ाज़ में, तसव्वुफ़ अख़लाक़ी सलूक को शामिल करता है।

सूखी हूदा अबू बकर अलकतानी के हवाले देते हैं, जो कहते हैं कि तसव्वुफ़ दिल की सफ़ाई (शिफ़ा) और अल्लाह के बराह-ए-रास्त मुशाहिदा (मुशाहिदा) को हासिल करना है। शिफ़ा अल्लाह के सामने रूह को पाक करने की तकनीक, तरीक़ा, और कोशिश को ज़ाहिर करता है, जबकि मुशाहिदा तसव्वुफ़ का हत्मी मक़सद है, जो अल्लाह की मौजूदगी को मुसलसल देखना है।

मज़ीद बराँ, सिमोह तसव्वुफ़ के दो कलीदी तसव्वुरात, फ़ना (हुसैनत) और कश्फ़ (रौशनी) को ज़ोर देते हैं। फ़ना एक हालत की तब्दीली को ज़ाहिर करती है, जबकि कश्फ़ रूहानी रौशनी के तजुर्बे को ज़ाहिर करती है। ये तसव्वुरात सूफ़ी इज़्म या माबअदलतबीआत की बुनियाद बनाते हैं।

कार्ल डब्ल्यू एर्नस्ट के मुताबिक, उनकी किताब "सूफ़ियों के अल्फ़ाज़ में अक्सटासी" में, तसव्वुफ़ को हक़ीक़ी इल्म और अल्लाह की समझ हासिल करने का ईमान है, जो ज़ेहन और हवास की महदूदियतों से आज़ाद है। एर्नस्ट ने तसव्वुफ़ के तारीख़ी तौर पर मुख़्तलिफ़ सक़ाफ़तों और ज़बानों में अमल करने की निशानदेही की, लेकिन इसे क़ुरान की रूहानी अथॉरिटी और नबी मुहम्मद के दिए हुए नमूने से मुत्तहिद किया। बुनियादी तौर पर, तसव्वुफ़ को एक रूहानी तरक़्क़ी के रास्ते के तौर पर देखा जाता है जो रूह के अल्लाह की तरफ़ रुजू करने से शुरू होता है।

सईद अकील सिराज ने बयान किया कि तसव्वुफ़ का ताल्लुक़ ज़ौक़ से है, जो एक तजुर्बाती पहलू है जिसे मआरूज़ी तौर पर नापा नहीं जा सकता, ख़ास तौर पर मिक़दारी इस्तिलाहात में। यह हैरान कुन नहीं है कि सूफ़ी अक्सर एक दूसरे से मुख़्तलिफ़ होते हैं, क्यूंकि वह इस बर्तन के रंग की तरह हैं जिसमें उन्हें रखा जाता है। अगर बर्तन लाल है तो पानी लाल नज़र आता है; अगर बर्तन सब्ज़ है तो पानी सब्ज़ नज़र आता है, और इसी तरह मज़कूरा तआरीफ़ से, यह समझा जाता है कि तसव्वुफ़ उस रास्ते या सफ़र की नुमाइंदगी करता है जो अफ़राद और अल्लाह के दरमियान फ़र्क़ को ख़त्म करने का ज़रिया है। इसके लिए सख़्त तर्बीयत, इंतेहाई वाबस्तगी, और रूह को पाक करने के लिए ज़हनी क़ूवत की ज़रूरत है, ताकि अल्लाह के साथ एक तअल्लुक़ क़ायम किया जा सके।

वसीअ मानों में, इब्राहीम बसीयुनी, जिन्हें अब्दुद्दीन नाता ने नकल किया, तसव्वुफ़ की तफ़हीम को तीन नुक्ता ए नज़र में तख़सीम करते हैं। पहले, इब्तिदाई सतह का तसव्वुफ़, इंसानी नुक्ता ए नज़र से, तसव्वुफ़ को एक कोशिश के तौर पर बयान करता है जो ख़ुद को पाक करने के लिए दुनियावी असरात से दूर रहकर अल्लाह पर मरकूज़ होता है। दूसरा, दरमियानी सतह का तसव्वुफ़, एक जद्दोजहद के तौर पर, तसव्वुफ़ को अख़लाक़ी फ़ज़ाईल से आरास्ता करने की कोशिश के तौर पर बयान करता है, जो अल्लाह के क़रीब होने के लिए मज़हबी तालीमात पर मबनी होता है। तीसरा, आला सतह का तसव्वुफ़, अल्लाह के मख़लूक़ के तौर पर इंसानों के नुक्ता ए नज़र से, तसव्वुफ़ को इलाही तअल्लुक़ के शऊर के तौर पर बयान करता है, जो अल्लाह पर एतिमाद का एक एहसास पैदा करता है, और ये शऊर इंसानों को अल्लाह के साथ गहरे तअल्लुक़ में मशग़ूल करने वाले आमाल की तरफ़ ले जाता है।

अगर हम तसव्वुफ़ की तीसरी तअरीफ़ पर ग़ौर करें तो हम देख सकते हैं कि तसव्वुफ़ बुनियादी तौर पर इंसानी तर्बीयत का जुस्तजू है, जो उन्हें दुनियावी उमूर के असरात से आज़ाद कर के अल्लाह के क़रीब रखने की कोशिश करता है, और पाकीज़ा रूह के साथ नेक किरदार पैदा करता है।

इसके बरअक्स, 21वीं सदी में, तसव्वुफ़ का एक नया मॉडल सामने आया है, जिसमें अख़लाक़ी मसायल पर तवज्जो देने के बजाय एक समाजी-सियासी जहत शामिल है। यह मॉडल कहता है कि तसव्वुफ़, जैसा कि सईद अकील सिराज ने बयान किया, एक इंसानी मिशन है जो इस्लाम के जामे मिशन को पूरा करता है। इसमें ईमान, इस्लाम, और अहसान के पहलू शामिल हैं, जिनमें तसव्वुफ़ इस्लाम में रहमदिली का मोजस्सिमा है। मुसलमानों की रोज़मर्रा की अमली ज़िंदगी में, सईद अकील सिराज के मुताबिक़, मोहज़्ज़ब तौर-तरीक़े की जहत मज़हबी मियाना-रवी (तवस्सुत), तवाज़ुन (तवाज़ुन), मियाना-रवी (एतेदल), और रवादारी (तसामुह) के उसूलों के ज़रिये ज़ाहिर होती है।

तसव्वुफ़ न सिर्फ़ अफ़राद को नेक ज़िंदगी गुज़ारने और नेक सलूक के साथ इबादत करने की रहनुमाई करता है, बल्कि उन्हें ज़िंदगी की ख़ूबसूरती और इबादत की ख़ुशी का तजुर्बा भी फ़राहम करता है। मजीद बरआं, तसव्वुफ़ इंसानों को नेक सलूक की ज़रूरत के बुनियादी सवाल का जवाब भी फ़राहम करता है, क्यूंकि अख़लाक़ी अक़दार इंसाफ़ की रूह पैदा कर सकती हैं और मुख़्तलिफ़ हालात में सही जवाब देने की सलाहियत दे सकती हैं, जो इंसानी ज़िंदगी के मुख़्तलिफ़ पहलुओं को आमाल और तसव्वुफ़ के ज़रिए माला माल और वसीअ करती है।

अमीन सकोर की किताब "मंगगट तसव्वुफ़" में बयान किया गया है कि मौजूदा दौर में तसव्वुफ़ की समाजी ज़िम्मेदारी पहले के मुक़ाबले में ज़्यादा भारी है। इसकी वजह मौजूदा दौर के पेचीदा हालात और अस्बाब हैं, जो तसव्वुफ़ को मुख़्तलिफ़ अंदाज़ अपनाने की ज़रूरत है ताकि वह जदीद दौर की समाजी ज़िम्मेदारियों का जवाब दे सके। मौजूदा दौर में तसव्वुफ़ को ज़्यादा इंसानी, तजुर्बाती, और फ़आल होना चाहिए। यह सिर्फ़ अल्लाह की इबादत तक महदूद न हो या फितरत में रद्द-ए-अमल का हामिल न हो, बल्कि इंसानी अख़लाक़ियात, समाजी इंटरैक्शन्स, और मआशी के मुख़्तलिफ़ पहलुओं में रहनुमाई फ़राहम करे।

जब तसव्वुफ़ सिर्फ़ रूहानी दुनिया में पनाह लेने के बजाए नज़र आने वाली दुनिया के साथ मुतहर्रिक हो जाता है, तो इसे समाजी ज़िम्मेदारी की शनाख़्त और रद्द-ए-अमल के तौर पर देखा जा सकता है। इसके बाद तसव्वुफ़ को अपने कामों को पूरा करने और मुआशरती मसायल का जवाब देने की ज़िम्मेदारी होती है जो मुआशरे में उभरते हैं।

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