सवाल १७ : राह-ए-सलूक में चलने वाले तालिब के लिए क्या शराइत हैं?
जवाब: तालिब को जवां मर्द और हिम्मतवाला होना चाहिए।
तज्किया-ए-नफ्स, यानी नफ्स को पाक बनाना है। इस की हद नहीं, जहां तक हो सके किए जाए। अख़्लाक़-ए-ज़मीमा मसलन हिरस, हसद, बुग्ज़, ग़ज़ब, शहवत, किज़्ब, और ग़ीबत वग़ैरह से बाज रहे और तमाम मुहर्रमात ओ मकरूहात शरई को छोड़ दे, दुनिया की लुत्फ़ों और तमाम महसूसात ओ माक़ूलात से जुदा हो जाए। अपनी रियायत ओ मुजाहिदा को शुमार में ना लाए और यह समझे के मैंने कुछ नहीं किया। अगर सहरा में ग़ार मिल जाए तो बहुत उम्दा है।
हलाल रोज़ी का इंतज़ाम करे, और जहां तक मुमकिन हो, एहतियात से काम ले, गिज़ा इतनी खाए जिस से जिसमानी कारोबार चलता रहे, तय का रोज़ा बहुत बेहतर है, और बाज़ लोग सौम दवाम को भी इसी के क़रीब समझते हैं। पानी कम पीने में भी बहुत कोशिश करे।
पीर का हुक्म बजा लाने में बड़ी मुस्तैदी से काम ले, और ख़फ़ीफ़ बातों पर तवज्जोह ना करे।
थोड़ा सोए और ग़ाफिल ना सोए, ख्वाब ओ बेदारी के दरमियान सोना चाहिए।
बाप दादाओं और इल्म और अक़्ल पर फ़क़र ना करे, अपने आपको सबसे बुरा और ज़लील-ओ-ख़्वार समझे, क्यूंकि जो शख़्स ऐसा समझता है, वह ख़ुदा से बहुत नज़दीक होता है।
वुज़ू और तहारत में इतना वहम ना करे कि नमाज़ और वज़ाइफ़ का वक़्त चला जाए। मैं बारहा कह चुंका हूँ और फिर कहता हूँ कि तालिब को सब से ज़्यादा दो बातों का अहतमाम करना चाहिए: एक तज्किया-ए-नफ्स, दूसरा तवज्जोह-ए-ताम, यानी नफ्स का पाक करना और ख़ुदा की तरफ पूरी तरह मुतवज्जोह होना। इन्ही दो बातों के लिए अम्बिया मब'ऊस हुए और उन्हीं की उन्होंने तालीम दी।
बिल-फ़र्ज़ वुज़ू नहीं है तो कोई बात नहीं, मुराक़बा और हुज़ूरी से दिल को ख़ाली ना रखे। तज्किया-ए-नफ्स यही है कि नफ्सानी ख़्वाहिशात ना करे और तवज्जोह-ए-ताम यही है कि तमाम ख़तरात दिल से दफ़ा करे। सहाबा कराम बवाजूद इस क़दर जिहाद, दुआ, और मेहनत-ओ-मशक्क़त के इन्हीं दो बातों पर सख़्त कोशिश करते थे, और इन्हीं के सबब से इन के मरातिब बुलंद थे। तालिब के लिए ज़रूरी नहीं कि सलामती इमान की दुआ करे, अपने मक़सूद को पेश-ए-नज़र रखे फिर जो हो, हुआ करे।