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सवाल १ : क्या मुरीद को हर वक़्त वुज़ू से रहना चाहिए?

जवाब: मुरीद बिना वुज़ू हरगिज़ ना सोया करे, अगर सोते सोते आँख खुल जाए तो उठकर वुज़ू कर ले और तहियतुल वुज़ू पढ़कर सोए। वुज़ू करने से दिल को शिफा हासिल होकर तबीयत का मलाल दूर होता है, हमेशा बा-वुज़ू रहना चेहरे पर नूर पैदा करता है।

सवाल २ : मुरीद के लिए जमात के साथ नमाज पढ़ना ज़रूरी है?

जवाब: सालिक शहर में हो या जंगल में, हर एक फ़र्ज़ नमाज़ जमात के साथ अदा किया करें। जो बुज़ुर्गान सहरा नशीं थे, उनकी जमात मर्दान-ए-ग़ाएब के साथ होती थी। अगर दूसरे का मिलना मुमकिन नहीं होतो ख़ैर, मजबूरी है ये कहना कि करामा कातिबीन के साथ जमात हो जाती है, बे हूदगोई के सिवा और कुछ नहीं। हर शख़्स में यह लियाक़त कहां कि फ़रिश्ते उसकी इक़्तिदा करें। अगर बाल-फ़रिश्ते या अरवाह-ए-बुज़ुर्गान नमाज़ में उसके साथ शरीक हो जाएँ तो जमात की फज़ीलत हासिल नहीं हुई, हाँ, अगर मर्दान-ए-ग़ाएब शरीक होंगे तो जमात हो जाएगी।

सवाल ३ : क्या मुरीद मक्रूह वक़्त में नमाज़ और मुराक़बा कर सकता है?

जवाब: अक्सर सूफी ओक़ात-ए-मक्रूहा में नमाज़ और मुराक़बा बजा लाते हैं, फ़ुक़हा कहते हैं मक्रूह वक़्त में ग़ज़ब-ए-इलाही जोश करता है, ख़ुदा के दोस्त जवाब देते हैं कि इस जोश और ग़ज़ब को दूर करने के लिए ता'अत और इबादत बजा लाना ज़रूरी है क्यूंकि बंदा और ग़ुलाम का मंसब भी है, जब अपने आका में ग़ज़ब के आसार देखें तो खुशामद में मशगूल हो ताकि वह गुस्सा बखैर-ओ-ख़ूबी रफ़ हो जाए, नीज़ आशिक़ सादिक़ को महल-ओ-ग़ैर महल से ग़रज़ नहीं, वह अपनी जुस्तजू में लगा रहता है, फिर मेहरबानी की हालत में महबूब का कुछ और हाल होता है और ग़ज़ब की हालत में कुछ और होता है, अगर माशूक़ नाज़ ओ अंदाज़ घोड़े पर सवार नीज़ा ताने चलाता हो बज़ा इस के के तुम अपने सीने को इस का निशाना बनाओ और कुछ नह करोगे और इस शान क़ह्र से तुम को जो लज्जत हासिल होगी वह अंदाज़ा से ख़ारिज है, फ़ुक़हा ये भी कहते हैं कि ओक़ात-ए-मक्रूह में मुश्रिकीन शैतान की पूजा करते हैं, सूफी कहते हैं इस लिए ज़रूरी हुआ कि हम उन की ज़िद्द-ओ-मुखालिफ़त करके वहदत-ए-लाशरीक के हुज़ूर में सरनगों करें।

सवाल ४ : मुरीद की नींद कैसी होनी चाहिए?

जवाब: मुरीद की नींद ऐसी होनी चाहिए जैसे नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहे वसल्लम) का इर्शाद-ए-ग्रामी है कि मेरी आँखें सोती हैं और मेरा दिल नहीं सोता। ऐसी नींद ना सोए जिसमें अपने वुजूद से बेखबर हो जाए। कहते हैं दो आदमियों को नींद नहीं, एक मुब्तला'ए दर्द-ए-फिराक को रंज ओ ग़म के सबब दूसरा वासिल को लुत्फ़ ओ लज़्ज़त के सबब से यह भी कहते हैं कि अहल-ए-यक़ीन को नींद बहुत आती है क्योंकि उनके दिल में रंज ओ ग़म नहीं रहता, इत्मिनान के सबब ख़ुब सोते हैं मगर जब के तमाम उम्र उनकी बेइदारी में गुज़री है तो उनकी तबीयत जागने ही की आदी हो जाती है।

सवाल ५ : मुरीद अगर सपना देखें तो क्या करें?

जवाब: मुरीद चाहे ख्वाब दिन को देखे या रात को, अपने मुर्शिद के सिवा किसी से बयान ना करें, और जब बयान करें तो उसकी ताबीर ना पूछे। अगर मुर्शिद बयान कर दें तो फिर वही मुराद, वरना खामोश हो जाए। सालिक इब्तेदा में जो वाक़िआत देखा करता है वह बाद में रफ्ता रफ्ता कम हो जाते हैं, मसलन जब कोई शख्स किसी शहर को जा रहा हो तो रास्ते में उसको दरख्त, पहाड़ और तरह तरह की चीजें नज़र आती हैं। इसी तरह अस्ना-ए-सुलूक में भी आफ़ताब, सितारे और सुवर मशायख़ वगेरह अश्या सालिक की नज़र में आती हैं, और कभी-कभी हातिफ़ की आवाज़ भी सुनता है मगर बाद में मफ़क़ूद हो जाती है।

सवाल ६ : मुरीद अगर सपने में पीर को बुरी हालत में देखे तो क्या करें?

जवाब: मुरीद इब्तिदा में जो ख्वाब देखें, पीर के सामने बयान करें और ताबीर ना पूछे। अगर पीर खुद ही ताबीर बयान करें तो बेहतर है, वर्ना खुद सवाल ना करें। ख्वाब में अम्बिया और औलिया की ज़ियारत करें मगर पीर की ज़ियारत सबसे बेहतर जाने और अक़ीद़ा रखें के तमाम पीर हक़ पर हैं मगर मेरे पीर का रास्ता सबसे नज़दीक है। अगर ख्वाब में पीर को या नबी को बुरी हालत में देखो तो उसको अपनी हालत तसव्वुर करो या यूं समझो के दुनिया में कोई ऐसा हादसा होने वाला है जिस के अंदर हर मख़लूक़ की यह हालत हो जाएगी।

सवाल ७ : ख्वाब में पीर को नबी या ख़ुदा की शक्ल में देखने के क्या मानी हैं?

जवाब: अगर मुरीद ने ख्वाब में नबी करीम ﷺ को अपने पीर की सूरत में देखा तो समझे कि पीर का इत्तिबा बिल्कुल हज़ूर की इत्तिबा है और गोया हज़ूर ने ही इसको यह इशारा फ़रमाया है कि तेरा पीर मेरी जगह है मुझ में और उस में बेगानगी नहीं है। अगर अपने पीर को ख्वाब में देख कर यह ख्याल किया कि यह ख़ुदा है तो उसकी ताबीर यह है कि पीर ख़ुदा का मज़हर है, ख़ुदा की इस पर तजल्ली है और बहुत से काम ख़ुदा ने उस के सुपुर्द किए हैं।

सवाल ८ : ख्वाब के मुताबिक वाक़िआ पेश आए तो मुरीद क्या करे?

जवाब: अगर ख्वाब में कोई बात देखे फिर उसी तरह ज़ाहिर हो तो उस को करामत नहीं समझे। आम लोगों के साथ भी ऐसा हो जाता है। उसी तरह अगर कोई ख्याल दिल में आया और उस के मुवाफ़िक हुआ तो यह भी करामत नहीं है। इस मुरीद को यह तसव्वुर करना चाहिए कि जो कुछ मेरे दिल में ख्याल आया, मैंने देखा जो हक़ीक़तन ज़ाहिर हुआ, यह सब मेरे पीर के कल्ब-ए-अनवार का कमाल है। उन के नूर-ए-अनवार का परतव है जो मेरे कल्ब पर गिर रहा है जिस की बदोलत मुझे हक़ नज़र आ रहा है।

सवाल ९ : इस्तिंजा करते वक्त अमामा और टोपी उतार देना चाहिए?

जवाब: इस्तिंजा करते वक्त अमामा और टोपी उतार देना चाहिए और दूसरा कपड़ा सिर पर बांध ले।

सवाल १० : पीर की खिदमत में क्या समझ के खर्च करना चाहिए?

जवाब: पीर की खिदमत में जो कुछ खर्च करे, उसका शुक्रिया बजालाए और पीर का अपने ऊपर एहसान समझे के उसे कबूल फरमाया।

सवाल ११ : तरीकत में कम खाने पर ज़ोर दिया जाता है तो मुरीद कैसे अपनी खुराक को कम करें जिससे उस में कमज़ोरी भी न आए?

जवाब: कम खाने की आदत डालने का तरीका यह है कि अगर कोई शख्स एक खोराक खाता है तो वह एक सेर चने तौल कर रख ले। फिर हर रोज़ इन चनो में से एक चना कम करें। इन के साथ अपनी खोराक का आटा या चावल वजन कर लें। इस तदबीर से साल भर में ३६० चनो की बराबर खोराक कम हो जाएगी और किसी क़िसम की कमज़ोरी भी पैदा न होगी।

सवाल १२ : क्या सूफ़ीया-ए-कराम को ऐतेकाफ करना चाहिए?

जवाब: सूफ़िया कराम ऐतेकाफ की बड़ी रायत फरमाते हैं। बाज़ ने चालीस रोज़ का और बाज़ ने तीन चिल्लो का ऐतेकाफ इख्तियार किया। बाज़ ने रमज़ान के आख़िरी अशरे का ऐतेकाफ ही काफी समझा।

ऐतेकाफ की तीन किस्में हैं।
एक ऐतेकाफ मु'ईन जो सभी को मालूम है और आम लोग ऐतेकाफ करते हैं।
दूसरा ऐतेकाफ दुवाम जो हर वक़्त मो'तकिफ़ होता है।
तीसरा ऐतेकाफ दिल, यानी अहल-ए-दिल अपने ख़ाना-ए-दिल के अंदर ऐतेकाफ करते हैं, या यूँ कहिए कि यह जो दिल हमारे पास है, हम अपने दिल से इस दिल पर ऐतेकाफ करते हैं।

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