शजरा मुबारक क्या हैं?
एक अलफ़ाज़ है हसब - जिसके मा'नी है वालिदा की तरफ से खानदानी सिलसिला और एक अलफ़ाज़ है नसब - जिसके मा'नी है वालिद की तरफ से खानदानी सिलसिला। अब इनसे मिलकर एक अलफ़ाज़ बनता है हसब-व-नसब यानी वालिदा और वालिद की तरफ से खानदानी सिलसिला।
आसान अलफ़ाज़ में मतलब है कि एक बच्चे के माँ-बाप कौन है और फिर उसके माँ-बाप के माँ-बाप कौन है और फिर उनके माँ-बाप और फिर उनके माँ-बाप? ये सिलसिला जहाँ तक मुमकिन हो वहाँ तक पीछे ले जाते है। इसको शजरा-ए-हसब-व-नसब या शजरा-ए-नसब भी कहते है और इंग्लिश में इसे फॅमिली ट्री कहते है।
ऐसे ही रूहानी शजरा भी होता है। जब कोई मुरीद या तालिब की हैसियत से बै'अत करता है, तो पीर-व-मुर्शिद बै'अत होने के बाद मुरीद को शजरा देते है। शजरा यानी उनके रूहानी सिलसिले के बुज़ुर्गों का रूहानी नसब नामा। यह शजरा बुज़ुर्गो का है यानी इसमें मुरीद के पीर से लेकर तमाम बुज़ुर्गो का नाम होता है जो सरकार-ए-दो आलम सल्लल्लाहू अलैहिवसल्लम तक है।
शजरा मुबारक कैसे दिया जाता है?पहले के ज़माने में ये याद करवा दिया जाता था या तो लिखवा दिया जाता था क्यूंकि प्रिंटिंग का बहुत चलन नहीं था। आज के जदीद दौर में हर तरीके से मुहय्या करवा दिया जाता है। हमारे क़ादरी-चिस्ती घराने का शजरा हमारी वेबसाइट www.sufitanveeripeer.com पर टेक्स्ट, इमेज, पीडीऍफ़ और वीडियो में मुहय्या है।
शजरा मुबारक क्यों दिया जाता है?
शजरा मुबारक से आपको बाहत सारी मालूमात आसानी से हासिल होती है। शजरा मुबारक से आपको आपके सिलसिले के तमाम बुज़ुर्गो के नाम पता चलते है। शजरा मुबारक में सरकार-ए-दो आलम सल्लल्लाहू अलैहिवसल्लम के बाद से हर बुज़ुर्ग के दरजात यानी रैंक मिलते हैं यानी कौन किसका पीर है यह आसानी से पता चलता है। मालूम पड़ता है की आप उस सिलसिले के कौन से पायदान यानी लेवल पर आकर मुरीद या तालिब हुए है। शजरा मुबारक से ये भी पता चलता की आपका सिलसिला कितना कदीम यानी पुराना है। शजरा मुबारक से आपके सिलसिले के इमाम, गौस, अब्दाल, क़ुतुब और वलियों के बारे में पता चलता है। शजरा मुबारक आपको आपके सिलसिले का माज़ी यानी पास्ट और हाल यानी प्रेजेंट भी बताता है।
शजरा मुबारक क्यों पढ़ना चाहिए?
पीर-व-मुर्शिद ने आपको अपनी बै'अत में क़ुबूल करके आपका सिलसिले के तमाम बुज़ुर्गो से एक रूहानी रिश्ता कायम कर दिया है। अगर हम किसी भी रिश्ते में जान डालना चाहते है तो हमें उनसे मेल-जोल रखना चाहिए। देखिये जब आप बहुत सालो के बाद अगर अपने किसी रिश्तेदार से मिलते है तो वो आपसे पूछते है की क्या आप उन्हें पहचानते हो? अगर आप न पहचान पाए तो वो आपसे कहते है की मिलते जुलते रहा करो जान पहचान बनी रहेगी यानी जब हम मिलते जुलते रहते है तो वो हमें और हम उन्हें अच्छे से पहचान पाते है। इसी तरह हमें हमारे सिलसिले के बुज़ुर्गो से मिलते जुलते रहना चाहिए।अगर वो पर्दा कर चुके है तो उनकी ज़ियारत करने जाना चाहिए और हयात में है तो दीदार के लिए जाना चाहिए। अगर किसी बुज़ुर्ग की बारगाह दूर है जहाँ बार-बार जाना मुमकिन नहीं है तो उनका नाम लेना चाहिए यानी उन्हें याद करना चाहिए। इसलिए शजरा मुबारक पढ़ने के लिए कहा जाता है।
शजरा मुबारक पढ़ने के फायदे?
वैसे तो इससे बड़ी नेमत क्या होगी की हम हमारे बुज़ुर्गो के पाक नामो का विर्द कर रहे है और उनसे अपने रिश्ते को मजबूत बना रहे है फिर भी कुछ और फायदे पेश कर रहा हूँ।
१) हमें हमारे बुज़ुर्गो के पाक नाम याद हो जाते है। हम जिन पर फखर करते है और जिनको हम अहम समझते है हम उनके नाम याद रखते है।
२) नेक लोगों का ज़िक्र करने से अल्लाह की रहमत नाज़िल होती है।
३) अपने आमाल के सवाब को हर बुज़ुर्ग तक फ़र्दन फ़र्दन पहुँचाने से उनकी रूहानी तवज्जो हासिल होती है।
४) शजरा मुबारक पढ़ने वाला मुसीबत के वक्त में उन्हें पुकारेगा तो उन बुज़ुर्गो की रूहानियत उसकी मदद करेगी।
५) बुज़ुर्गो से नेक ताल्लुक दुनिया और आख़िरत में अज़ीम नताइज़ लाते है। जितना हम उन्हें जानेंगे उतना हमारा रूहानी सफर आसान होता जाता है।
क्या शजरा मुबारक सुनने वाले शख्स को भी सारे फायदे होंगे?
जी हाँ। इसके फायदे पढ़ने और सुनने वाले दोनों को होंगे। बस शर्त ये है की वह सिद्क़ दिल से मोहब्बत और अदब के साथ उनके नाम सुने और दोहराते जाये। इंशाल्लाह बुज़ुर्गो का फैज़ जारी होगा।
क्या हर बुज़ुर्ग जिनका नाम शजरा मुबारक में लिया जाता है वो आते है और पढ़ने वाले के मुक़ाम बुलंद करते है?
जी हाँ। उनकी रूहानियत आपको घेर लेती है और आपको रूहानी फैज़ हासिल होता है। कुछ लोग दुनियावी ऐतेबार से भी उनका नाम लेते है और अल्लाह उनके सदके में आपकी तमाम जायज़ मुरादों को क़ुबूल भी करता है पर कोशिश ये होनी चाहिए की हम उनके वसीले से ये माँगे - या अल्लाह जो नूर इन बुज़र्ग़ो के सीने में है वो अता फरमा या अल्लाह जो मारफत-ए-इलाही इनके सीने में है वो अता फरमा या अल्लाह जो तेरा इरफ़ान इनके सीने में है वो अता फरमा।
शजरा शरीफ पढ़ने का बेहतरीन वक्त और तरीक़ा क्या हैं?
शजरा शरीफ पढ़ने का सबसे बेहतरीन वक़्त बाद नमाज़-ए-फज़र या बाद नमाज़-ए-मग़रिब है। किसी वजह से अगर फज़र और मग़रिब में मुमकिन न हो तो किसी भी वक़्त पढ़ सकते है। कोशिश करना चाहिए की एक वक़्त मुक़र्रर करके रोज़ाना उसी वक़्त पढ़े। बा-वुजू होकर मुसल्ला बिछाकर क़िब्ला रुख बैठकर बहुत ही एहतराम के साथ शजरा मुबारक की तिलावत करनी चाहिए। हर बुज़ुर्ग का नाम उनके अलक़ाब के साथ अदब-व-एहतराम के साथ इस अक़ीदे के साथ पढ़ना चाहिए की उनकी रूहानियत हाज़िर है और हमें बहुत मोहब्बत से जवाब दे रही है। ये बहुत अहम है कि मुरीद शजरा मुबारक को समझ, इखलास और जज़्बे के साथ पढ़े। इससे उसकी रूह में तहरीक पैदा होगी; जो पढ़ने वाले की रूहानी तरक्की के लिए अनमोल है। जब तमाम बुज़ुर्गो के नाम पढ़ लेने के बाद फातिहा दे।
फ़ातिहा का तरीका:
बा-वुज़ू होकर किब्ला रुख बैठें।
लोबान जलाएं या कोई खुशबूदार चीज़ लगाएं।
एक बार दरूद शरीफ पढ़ें।
एक बार सूरह काफिरून यानी “कुल या अय्युहल काफिरून” पढ़ें।
तीन बार सूरह इखलास यानी “कुल हुवल्लाहु अहद” पढ़ें।
एक बार सूरह फलक़ यानी “कुल आउजू बिरब्बील फलक” पढ़ें।
एक बार सूरह नास “कुल अऊजु बिरब बिन नास” पढ़ें।
एक बार सूरह फातिहा यानी “अलहम्द-ओ-शरीफ” पढ़ें।
एक बार सूरह बक़राह (अलिफ-लाम-मीम से मुफ्लिहून तक) पढ़ें।
एक बार आयत-ए-खमसा पढ़ें।
एक बार दरूद शरीफ पढ़ें।
फिर अपने शजरे में जितने भी बुजुर्ग हैं, उनको इसका इसाल-ए-सवाब करें।
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